सिन्धुकालीन भारत में ककुसन्ध बुद्ध

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सिन्धुकालीन भारत (ककुसन्ध बुद्ध) में विदेशी वैदिक आगमन


लेखक


सिद्धार्थ वर्द्धन  सिंह  


पालि एवं बौद्ध दर्शन विभाग

काशी हिन्दू विश्वविधालय


मो.नों -09473529020




भारत (सिन्धुघाटी-सभ्यता),जिसका इतिहास सदियों प्राचीन है ৷ विदेशी आक्रमणों और उनके द्वारा फैलाये गए झूठे प्रचारों ने देश की सभ्यता,संस्कृति,भाषा,लिपि व धर्म, इतिहास को नष्ट कर दूषित विदेशी परम्परा के प्रयोग से वर्ण-व्यवस्था का शासन आरम्भ से परतन्त्र बनाने का इतिहास पुनः मौर्यराजवंश के बुद्ध की शिक्षा के शासन को नष्ट कर दोहराया गया था ৷ एक दिन पुनः हम विश्वविजेता बनेगे और सभी को आपनी आखे खोलनी होगी,जागना होगा “प्रबुद्ध भारत” के लिए ৷


भारत की मूल सिन्धुघाटी की सभ्यता (3300-1700) ई०पू० विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओ में से एक प्रमुख सभ्यता थी ৷

I.I.T खड़गपुर और भारतीय पुरातत्व विभाग के वैज्ञानिको ने सिन्धुघाटी सभ्यता की प्राचीनता को लेकर नए शोध सामने रखा है ৷ वैज्ञानिको के अनुसार सिन्धुघटी की सभ्यता 21वीं सदी से लगभग 8000 वर्ष पुरानी सभ्यता है ৷ पुरातात्विक खोजो से सिन्धु-सभ्यता को प्राक्-ऐतिहासिक अथवा कांस्य युग में रखा गया है,इस सभ्यता के मुख्य निवासी द्रविड़ भारतीय थे ৷ सिन्धुघाटी-सभ्यता का स्थान सर्वाधिक पूर्वी-पुरास्थल (संपूर्ण उत्तर भारत)  उत्तरीपुरा-स्थल (हिमालय पर्वत श्रेणियां) दक्षिणी-पुरास्थल दायमाबाद का क्षेत्र (महाराष्ट्र गुजरात) व पश्चिमी-पुरास्थल बलूचिस्तान का क्षेत्र है ৷

1921 ईस्वी में भारतीय पुरातत्व विभाग के महानिदेशक “सर जॉन मार्शल” के निर्देशन में रावी नदी के तट पर स्थित हडप्पा का अन्वेषण किया गया ৷ जॉन मार्शल ने सर्व प्रथम इसे सिन्धु-सभ्यता का नाम दिया ৷ सिन्धु-सभ्यता को मुईनजोदारो अर्थात मुर्दों का टीला भी कहा जाता है ৷

यह नाम तक पढ़ा होगा जब सभ्यता का अस्तित्व समाप्त हो गया होगा ৷ सिंधु-सभ्यता के प्रवर्तकों को द्रविड़ पालि साहित्य में इसे द्रोण (“खो द्रोण ब्राह्मणों तेसं संघानं गणान”) अर्थात् द्रोण से द्रविड़ शब्द ही है ৷ ब्राहुयी (ब्राह्मी),पाणी-असुर,वृत्य,वाहिक,दास,नाग,आर्य=(मेलुक्ख),प्रजापति की सभ्यता है ৷ मुख्य रूप से आर्य (श्रेष्ठ लोग)=मेलुक्ख ,द्रविण (द्रोण) ही सिन्धु सभ्यता के निर्माता है ৷



सिन्धु-सभ्यता से अन्य अवशेषों में महाविधालय के भवन,कासे की नृत्य करती नारी,साधनारत मूर्ति प्राप्त है ৷ सिन्धु-सभ्यता में मुख्य रूप से प्राप्त मुद्राओ पर अंकित पशुपतिनाथ-शिव=अरहत बुद्ध की मूर्ति,ब्रह्मा मुख वाला एक पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा है ৷ (पालि साहित्य त्रिपिटक के अनुसार चार मुख वाला ब्रह्मा जो इस बात का प्रतिक है की जिसमे अनन्त करुणा,अनन्त मैत्री,अनन्त मुदिता,अनन्त उपेखा का स्वाभाव हो)

सिन्धु-सभ्यता से बुद्धो का प्रतीक चक्र व अष्टांग मार्ग का प्रतीक भी प्राप्त है ৷ सिन्धु-सभ्यता में विशाल स्नानागार धार्मिक उद्देश्य के लिए था,जान मार्शल ने इसे तत्कालिन विश्व का एक आश्चर्यजनक निर्माण कहा है ৷

सिन्धुघाटी-सभ्यता की शासन व्यवस्था प्राचीन भारत में शाक्य-मौर्य कालीन शासन व्यवस्था की भाति पूर्णतयः गणतंत्रात्मक प्रणाली थी ৷ सिन्धुघाटी-सभ्यता की भवन संरचना शाक्य-मौर्यकालीन भवन संरचना की भांति ग्रिडीड पैटर्न पर ही आधारित थी ৷

मेसोपोटामिया के अभिलेख में वर्णित मेलुहा शब्द का प्रयोग सिन्धु-सभ्यता के लिए हुआ ৷ जिसका अर्थ आर्य (श्रेष्ठ) लोगों से है,(पालि साहित्य में आर्य शब्द का प्रयोग पञ्च शिलो का पालन करने वाले लोगों के लिए प्रयोग हुआ है)

ककुसन्धो सत्थवाहो कोणागमनो रणञजहो ৷

कस्सपो  सिरिसम्प्पन्नो  गोतमो  सक्यपुगवो  ৷৷

(अट्टवीसत्ति “परितं” सुत्त पालि)

अर्थात ककुसन्ध युद्ध भूमि में विजयी कोणागमन सिरिसंपन्न कस्सप्प और शाक्य-श्रेठ गौतम बुद्ध हुए ৷ अतीत में अनेक बुद्ध हुए परन्तु भगवान बुद्ध द्वारा अपने पूर्वर्ती 27 बुद्धो का एतिहासिक विवरण पालि साहित्य के माध्यम से हमें प्राप्त है ৷ क्योकि इसका प्रमाण सम्राट अशोक के निग्लिवा अभिलेख से होता है,जिसमें  लिखा है कि अपने राज्याभिषेक के 14वें वर्ष में (255 ईसा०पू०) अशोक ने निग्लिवा में जाकर कनक मुनि बुद्ध=(ककुसन्ध-बुद्ध) के स्तूप



को दोगुना  आकार करवाया था ৷ कनक मुनि बुद्ध=(ककुसन्ध) का स्तूप भगवान गौतम बुद्ध के जन्म से पहले का है,जिसका अध्ययन इतिहासकारों को ध्यानपूर्वक कर लेना चाहिए  ৷

निग्लिवा अभिलेख (255 ईसा०पू०)


भगवान गौतम बुद्ध से पहले हुए ककुसन्ध-बुद्ध की पुरातात्विक खोज में मेजर फ़ोर्स ने अपनी पत्रिका द जनरल ऑफ़ एशियाटिक सोसाइटी जून 1836 ई0 के अंक में प्रकाशित ककुसन्ध-बुद्ध का समय 3101 ई०पू० निश्चित किया गया है,जो लगभग 3300 ईसा०पू० तो पुराकतत्व के अनुसार सिन्धुघाटी की सभ्यता का युग है ৷ सिन्धुघाटी सभ्यता के लोग पशुपतिनाथ-शिव=ककुसन्ध बुद्ध की पूजा करते थे ৷


पशुपतिनाथ-शिव कौन ?

पशुपति जिसने अपने भीतर प्रज्ञा जगाकर पशुचित्त-वृत्तिय (कम,क्रोध,मोह,लोभ) पर नियत्रण कर विजय पायी परिशुद्ध हुवा,अर्थात अपने पशुचित्त-वृत्तिय रूपी शास्त्रुओ पर विजय प्राप्त कर पशुपतिनाथ कहलाया ৷ अरहत हो गया, बुद्ध हो गया, शिव का अर्थ ही है मंगल जिसने अपना मंगल साध लिया हो ৷ इस प्रकार 3101 ईसा०पू० सिन्धुघाटी की सभ्यता के इस आर्य भूमि भारत की धरती पर पहले अरहत बुद्ध (ककुसन्ध)=पशुपतिनाथ-शिव उत्त्पन्न हुए ৷ भाषा व पुरातात्विक खोजो से निः संदेह सिन्धुघाटी की सभ्यता के लोग पशुपतिनाथ-शिव अर्थात ककुसन्ध-बुद्ध की ही पूजा या उपासना करते थे ৷ सिन्धु से सन्ध शब्द ककुसन्ध नाम परिलक्षित होता है ৷ (भाषाओ के शाब्दिक परिवर्तन का क्रम देखे -- सन्ध=सिन्ध=सिव=शिव)

एक मनुष्य जो इस ब्रह्माण्ड के कानून,प्रकृति के शुद्ध नियम को प्रज्ञा से जानकर शुद्ध बन जाये वाही आर्य (श्रेष्ट) हो जाता है,ब्राह्मण हो जाता है और कोई भी हो जायेगा जो शुद्ध विप्पस्सना मार्ग पर चल कर आपने भीतर की प्रज्ञा जगाले ৷



ऋषि या मुनियों को उन दिनों के भारत में उनके विशेष गुणों के कारण श्रेष्ट (आर्य) कहे जाते थे ৷ परन्तु विदेशी वैदिक जाति के लोगो ने भारत की मूल सभ्यता,धम्म को नष्ट कर अवस्था सूचक शब्द को जाति सूचक बनाया ৷ ब्राह्मण शब्द के नैसर्गिक कानून को बिगाड़ कर दूषित ग्रंथो की रचना द्वारा वर्ण-व्यवस्था का घृणित तांडव आरम्भ कर प्राचीन भारत में सिन्धुघाटी की सभ्यता को नष्ट कर परतन्त्रता का पहला विदेशी आक्रमण था ৷

भारत के दो ऐसे सभ्रांत अवस्था सूचक शब्द है,जो उन दिनों के भारत में भी विदेशी वैदिको के आक्रमण से अपना अस्तित्व खो चूका था ৷ जिसे भगवान गौतम बुद्ध ने पुनः इन अवस्था सूचक शब्दों पर प्रकाश डालते हुए इन शब्दों का  इतिहास बताया था ৷

देखे पालि साहित्य के दिघनिकाय में -


शाक्यवंश का प्रारम्भिक इतिहास व ब्राह्मण =


लगभग 12वी शताब्दी ई0पू0 के भारत  में सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा इक्ष्वाकु अपनी प्रिया मानपा रानी के पुत्र को राज्य देने की इच्छा से उल्कामुख, करण्डक, हात्थिनिक और सीनीसुर नामक चार लड़को को राज्य से निकाल दिया वह हिमालय के पास सरोवर किनार के एक विशाल शाकव वन में निवास करनें लगे। अपने कुल, वंश को शुद्ध रखनें के लिए सजातिय बहनो के साथ सहवास किया। राजा इक्ष्वाकु के जानने पर उन्होंने ने उदान कहा शाकव वन की तरह शाक्य कहा सर्वशक्तिमान कहा। तब से शाक्य नाम से प्रसिद्ध हुए। वही शाक्यों का पूर्वज राजा इक्ष्वाकु थे। उसी राजा इक्ष्वाकु की दिशा नाम की दासी थी। उससे कृष्ण नामक काला पुत्र पैदा हुआ। उसी कृष्ण से उत्पन्न वंश आगे काष्णर्यायनो का पूर्वज था। काष्णर्यायनो से कहवाती ब्राह्मणों के अनेक प्रसिद्ध गोत्र चले। इस प्रकार भगवान



बुद्ध ने अपना परिचय देते हुए-

आदिच्चा नाम गोतेन, सकिया नाम जातिया।  - सुन्तनिपात

आदित्य गोत्र शाक्य वंश का हूॅ।

खत्तियसम्भवंग अग्गकुलिनो देवमनुस्स नमास्ति पादो।   - राहुलकत्थणावना

जो क्षत्रियो के अग्रज कुल उत्पन्न है, जिनकी की चरणो की वन्दना देव और मनुष्य भी  करते है।


देवो ब्रह्मा च सास्ता । (अम्बठसुत्त)

जो देवो और ब्रह्माओ के भी उदेशक है। जाति गोत्र के अनुसार शाक्य आर्य स्वामी पुत्र होते है और काष्णर्यायन तो शाक्यो के दासी पुत्र है। इस प्रकार आम्बष्ठ-माणक अपने वैदिक-ब्राह्मण जाति-वर्ण के कारण भगवान को निचा दिखाने से  भरी सभा में अपने जात्याभिमान के कारण ही लज्जित होता है। अब भगवान ने जात-पात का खंडन करते हुए ककुसन्ध-बुद्ध के समय (३१०१ ईसा०पू०) के भारत का ब्राह्मण, श्रमण, आर्य का सही अर्थो में इतिहास बताया। उन दिनो के भारत में कुछ ऐसे ना समझ लोगो नें अवस्था सुचक शब्दो को जाति सुचक शब्द बना लिया,उसी प्रकार से आज के वर्तमान भारत में उसी दूषित परम्परा के लोग जाति-वर्ण का पाप किये जा रहे हैं। दूसरी तरफ कुछ ऐसे ना समझ व्यक्ति है जो इन अवस्था सुचक शब्दो का अर्थ न समझकर इन शब्दो के प्रति द्धेष करते है, घृणा करते है,अपने तर्क से न जाने क्या अर्थ मान बैठे है। जानते कुछ नही, तो आये घमण्ड की बेड़ीया तोड़कर शुद्ध ज्ञान क्या हैं ?, प्राचीन भारत की शुद्ध परम्परा में किसे ब्रह्मण कहा जाता है ? ,कौन आर्य ? ,

कैसे श्रमण अवस्था प्राप्त कर सकते है। भगवान की वाणी में जाने सामझे ---

को  ब्राह्मणो।

कौन ब्राहमण?

न जटाहि न गोतेन, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।

यम्हि   धम्मो  च  सो सुची  सो च   ब्राह्मणो ।। (धम्मपद)

न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है, जिसमें सत्य हैं। जिसने चार आर्य सत्य को जान लिया हो,आठ अग वाले आर्य मार्ग को भावित कर लिया जो इस लोक में आठ लोकोत्तर धर्मो से कम्पित नही होता है, वह सुचि (पवित्र) है ऐसी अवस्था प्राप्त व्यक्ति ब्राह्मण हैं।


को आरियं।

कौन आर्य हैं-?

को     अरि     यदा     पयाय       पस्सति ।

सब्ब दुक्खा पमुच्चति तेन होति कोअरियं।। (उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिन्द)

सभी शत्रुओं को जो ऐसा प्रज्ञा से देखनेवालो है, जिसके सभी दु:ख दुर हो गये जिसने दु:खो से मुक्ति प्राप्त कर, जिसका चित्त प्राज्ञा मे स्थित है ऐसा व्यक्ति कोअरिय (जो-आर्य) है। श्रेष्ठ है आज वही कोअरिय(कोइरी) शब्द जाति सूचक शब्द हो गया।


वाहितपाप”ति ब्राहमणों समचरिया समणोति वुच्चति।

पब्बाजयमन्तनो   मलं   तस्मा   पब्बजितो       बुच्चति।। (धम्मपद)


जिसने पाप को वहा दिया वह ब्राह्मण हैं। जो समता का आचरण करता है वह श्रमण है जिसने अपने चित्त के विकारो को हटा दिया इसलिए वह प्रवजित कहा जाता हैं।

भगवान बुद्ध की शरण ग्रहण कर आम्बट-मणवक शुद्ध धर्म के मार्ग पर चलते हुए सही अर्थो में ब्राह्मण बना और अरहत् अवस्था प्राप्त कर भव-चक्र से मुक्त हो गये बहुत बड़ा कल्याण और मंगल हुआ।

भारत अरहतो का देश,बुद्धो,का देश,भगवान पशुपनाथ-शिव=(ककुसन्ध बुद्ध) का देश, ऋषि-मुनियों (वैज्ञानिको) का देश ৷


सिन्धुघाटी की सभ्यता बुद्ध-धम्म-संघ की सभ्यता,सिन्धुघाटी की लिपिया अपठनीय तो वरन् उसका विकास सम्राट अशोक के समय में ब्राह्मी-लिपि से होता है ৷ यही अधिक जान पड़ता है की सिन्धु-लिपि से ब्राह्मी-लिपि का विकास  हुआ है,वस्तुतः सिन्धु-लिपि में और ब्राह्मी-लिपि के उपलध लेखो में लगभग 1000 वर्षो का अन्तर हैं ৷

भाषा,पुरातात्विक वैज्ञानिक खोजो से प्रायः यह सिद्ध हो चूका है की सिन्धुघाटी की सभ्यता का विनाश का प्रमुख कारण मेसोपोटामिया की सभ्यता से आये विदेशी-वैदिको का आक्रमण (1700-1500 ईसा०पू०) था ৷

प्रसिद्ध पुरातात्विक वैज्ञानिक गार्डन चाइल्ड एवं ह्विलेर के अनुसार सिन्धुघाटी की सभ्यता के नष्ट होने का प्रमुख कारण बाहरी (विदेशी वैदिक) आक्रमण ही था ৷

प्राचीन भारत से अब तक विदेशी घुसपैठियों का काल-क्रम--


  1. मेसोपोटामिया से वैदिको का आगमन   - (1700-1500 ईसा०पू०) ৷

  2. बाहरी मुस्लिम आक्रमण                              - (1000-1500 ई०) ৷

  3. यूरोपीय व्यपारिक कंपनियों का आगमन                - (1600 ई०) ৷


मुस्लिम व अंग्रेजी दोनों विदेशी शासन के परतन्त्रता से स्वत्रन्त्र भारत का इतिहास हम खूब पढ़ते है,परन्तु वह तीसरी (प्रथम आक्रमण) के विदेशी शासन की आवाज अब तक गुमनाम क्यों ?


मेसोपोटामिया से विदेशी वैदिको का आगमन =

भाषाओ और पुरातात्विक,वैज्ञानिक खोजो से प्रायः पूर्णरूपेण सिद्ध हो चूका है कि मेसोपोटामिया से वैदिक जातियों के दल आगे ईरान की ओर बढे ৷ वे वहा आकर बस गए और 1700 ईसा०पू० के आस-पास उनका घुसपैठ सिन्धुघाटी की सभ्यता में आगमन हुआ ৷ ईरान से भारत में यह आगमन धीरे-धरे ही हुवा था ৷



यही वैदिक व जरथुस्त्र दोनो संस्कृतिया उत्तपन्न हुयी ৷ अग्निपूजक वैदिक कर्म-कांड बलवंतर हुवा ৷ बृहद अन्धमान्यताओ को लेकर एक विशेष प्रकार का पोरोहित्य चल पड़ा तथा पारसी अवेस्ता से वैदिक यज्ञो में होम का बड़ा महत्व दिया जाने लगा ৷

वैदिक का प्रारम्भिक शाब्दिक अर्थ वेदिका से है,(वेदिका-अग्निपूजक-बलि) ऐसा समुदाय जो वेदिका बनाकर अग्निपूजा द्वारा बलि प्रथा में विश्वास रखता है ৷ इस प्रकार के अन्धविश्वासी कर्म-कांड करने वाले पुरोहित समुदाय को वैदिक कहते थे ৷

सु० नि० 298-309 ब्राह्मणधम्मिकसुत्त

वैदिक एवं अवेस्ता के छन्दों की उत्त्पति भी यदि मेसोपोटामिया में नहीं तो ईरान में अवश्य होकर अपने आरम्भिक अवस्था को प्राप्त हुई थी ৷ विद्वानों का मत है की लगभग 1700 ईसा०पू० के आस-पास तक हन्तिकल में ही वैदिक जातिया मेसोपोटामियन-छन्दों का विकास ईरान में ही हुआ था ৷ (आज जहा इराक और ईरान जैसे देश स्थित है उसी धरती पर कभी मेसोपोटामिया की सभ्यता हुआ करती थी) ৷


साथ ही वैदिको ने असीरियन व बेबिलोनी सभ्यता के कुछ  उपादानो को ग्रहण किया,जिसका हमें वैदिक पुराणों से साक्ष्य मिलते है ৷ विद्वानों का ऐसा मानना है की ईरान के उत्तर-पूर्व प्रदेश की प्राचीन भाषा वस्तुतः अवेस्ता धर्म-ग्रंथो की भाषा है और यही भाषा वैदिक-पुराणों की भाषा छान्दस कहलायी ৷

वैदिक-ग्रंथो व अवेस्ता-ग्रंथो में जो भाषा की समानता है ৷ उसका प्रदर्शन निम्न उदाहरण से हो जाता है--



अवेस्ता का पद

हावनिम् आ रतूम आ,हओमो उपाईत जरथुवैम ৷

वैदिक छान्दस रूप

                                             सावनेम  आ  रतोम  आ सोम  उपैत  जरठोष्ट्रम ৷



ईरानी शाखा के अंतर्गद प्राचीन फारसी भाषा की गणना होती है ৷ इसमें हखाम्निशीय वंश के सम्राट दरायश (Darius) तथा उसके पुत्र जरकसिज (Xerxarius)के शिलालेख तथा तम्रलेख प्राप्त है ৷ प्राचीन फारस की ध्वनिय अवेस्ता एवं वैदिक छन्दस सभी एक सामान है ৷


प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य यह गवाही करते है कि वैदिक-छान्दस भाषा भारत की मूल भाषा नहीं है किन्तु लम्बे समय से छान्दस तथा पालि के मेल से वैदिको की भाषा में सम्मिश्रण होना स्वाभाविक था ৷ यही कारण है की वैदिक छान्दस के बहुत से स्वरुप पालि में ज्यो के त्यों मिलते है परन्तु बाद के संस्कृत में नहीं है ৷

भारत की मूल प्राचीन भाषा-लिपि =


प्राचिन भारत में सर्वप्रथम मौर्यकाल में ब्रह्मि-लिपि के विकास से लिखने का प्रयोग मिलता है ৷





जिस प्रकार 1500 ईसा०पू० में सिन्धुघटी की सभ्यता के ककुसन्ध-बुद्ध की शिक्षा,सिन्धु-लिपि का विनाश विदेशी वैदिको द्वारा हुआ ৷ उसी प्रकार मौर्यसाम्राज्य का पतन कर भगवान गौतम बुद्ध की शिक्षा व ब्राह्मी-लिपि,भाषा पालि-प्राकृत को नष्ट करने का पूर्णतया प्रयास किया गया ৷ तभी आगे चल कर वैदिक पाणिनि व डंडी नामक दो व्याकरणाचार्यो ने पालि भाषा को परिमार्जित (परवर्तित) कर “संस्कृत”(संस्कार की हुई भाषा नाम दिया) रखा ৷

(भाषा व पुरातात्विक खोजो से पालि से संस्कृत का निर्माण पारणी-डंडी-पातंजली द्वारा मौर्य-काल के बाद ईसा०पू० दूसरी शताब्दी में हुआ) ৷


इस प्रकार प्राचीनता के क्रम में (प्राकृत-पालि-संस्कृत-आदि भाषाओ) की जननी है ৷ जिस प्रकार पाणिनि द्वारा संस्कृत का जन्म हुआ तथापि वह पतंजलि के समय (दूसरी शताब्दी ईसापूर्व) तक सिमित रही उसका बहुत कम प्रचार हुआ और तीसरी शताब्दी ई० से व्यापक होने लगा ৷ उसी प्रकार पालि का प्रादुर्भाव भगवान गौतम बुद्ध से पहले लगभग 1200 ईसा०पू० आपने आरम्भिक अवस्था में हो चूका था ৷ (यही अधिक संभव हो सकता की सिन्धु-भाषा से ही प्राकृत-पालि का भी विकास संभव हो जिस प्रकार सिन्धु-लिपि से ब्राह्मी-लिपि का विकास हुवा होगा) ৷

मुख्य रूप से पालि भाषा तब प्रकाश में आई,जब भगवान गौतम बुद्ध ने अपनी मातृ-भाषा पालि में अपनी शिक्षा के प्रचार के लिए किया और इस क्रम में पालि-भाषा का विकास बहुधा होने लगा ৷

पालि साहित्य के अनुसार पालि का शैशव-कल से लेकर अबतक काल-क्रम ---


  1. आदिकाल                -- 1200-483 ईसा०पू० तक ৷

  2. मध्यकाल               --     483-325 ईसा०पू० तक ৷

  3. स्वर्ण काल         --     325 ईसा०पू०-600 ई० तक ৷

  4. आधुनिक काल            --  600 ई० से --आब तक ৷


छान्दस पंजाब से लेकर मगध तक बसे वैदिक बस्तियों की भाषा थी ৷ वैदिको की आपनी भाषा छान्दस थी,और जहा-जहा वैदिको (आर्यों-बाद का ग्रहण किया नाम) की बस्तिया थी वहा-वहा बहुजन समाज पालि का प्रयोग करना स्वाभाविक था ৷

पालि साहित्य का इतिहास

डॉ भिक्षु धर्मरक्षित


भगवान गौतम बुद्ध ने भी वैदिक-छान्दस को विदेशी तथा पालि भाषा को मातृ-भाषा माना है देखे -चुल्लवर्ग

भगवान के समय कुछ वैदिक-जाति (ब्राह्मण-दूषित परम्परा) से हुए भिक्षुओं को यह बात अच्छी नहीं लगती थी कि बुद्ध वचन को बहुजन समाज ग्रहण करे ৷ वह यह कहते थे कि बुद्ध धर्म के सूत्र वैदिक-छान्दस में हो और वे भी उनका स्वाध्याय केवल वैदिक-जाति के लोगो द्वारा ही हो  ৷ एक दिन उनमे से तेकुल और यमड़े नमक भिक्षु भगवान के पास जाकर प्रणाम करके उन्होंने भगवान कहाँ क्योंना ऐसा हो की हम बुद्ध वचन को वैदिक-छान्दस में कर दे ৷

भगवान ने विदेशी वैदिको के इस सड्यंत्र को समझा और उन भिक्षुओ को कड़ी फटकार लगाई की कदापि बुद्ध वचन को छान्दस में नहीं करना ৷ “यह उचित नहीं की धम्म सूत्र के पाठ वैदिक-भाषा में हो“  भिक्षुओ मै तुम्हे अनुमति देता हु की केवल बुद्ध वचन तुम आपनी मातृ भाषा-पालि में ही करना चाहिए ৷

बुद्ध वचन तो चन्द्रमा और सूर्य मंडल के सामान सार्वजनीन सबके सामने सुशोभित और प्रकाशित होता है इसलिए तुम लोग इसे सबके सामने रखो,सभी को बतलाओ और भली-भांति धारण करो ৷

भिक्षुओ बुद्ध वचन को वैदिक-छान्दस में नहीं करना चाहिए जो करेगा उसे “दुष्कृत"(दुक्कट) का दोष लगेगा ৷

(विनयपिटक-चुल्लवग्ग 5,6,1.)


अतः आज वर्तमान समय में इन विदेशी-वैदिक कर्मकाण्ड अन्धमान्यताएॅ विदेशी-वैदिक संस्कृति को त्यागकर अपने स्वर्णिम मूल भारतीय-संस्कृति(सिन्धु-बुद्ध-सभ्यता) तथा शुद्ध-धम्म का अनुसरण कर पुनः आर्य=(श्रेष्ठ) बनना होगा। जैसा भगवान बुद्ध और सम्राट अशोक के समय में था, फिर वैसा परिवर्तन आयेगा।


 


 


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