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महान श्रमणाचार्य विण्हूगुप्त “चाणक्य” लेखक
सिद्धार्थ वर्द्धन सिंह
पालि एवं बौद्ध दर्शन विभाग काशी हिन्दू विश्वविधालय
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महान आचार्य श्रमण विण्हूगुप्त का जन्म ईसा से ३५६ वर्ष पूर्व आषाढ़ मास की कृष्ण चतुर्दर्शी को हुवा था ৷
आदिच्चा नाम गोतेन, सकिया नाम जातिया ৷
मोरियानं खतियानं वंसजातं सिरिधरं चन्दगुप्तो”ति ৷
पञ्ञातं, विण्हूगुप्तो”ति भातुका ततो ৷৷
उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिन्द
महान सम्राट अशोक के पुत्र थेरमहिन्द द्वारा लिखित प्राचीन ग्रन्थ पालि उत्तरविहारट्टकथायं के अनुसार विण्हूगुप्त,चन्द्रगुप्त के बड़े भ्राता थे ৷ इस प्रकार उन्होंने आदित्य गोत्र मौर्यवंश के क्षत्रियो में उत्त्पन्न होकर अखण्ड भारत का निर्माण किया ৷
राजकुमार विण्हूगुप्त के पिता का नाम राजा चन्द्र वर्द्धन तथा माता का नाम धम्म मोरिया देवी था ৷ इनका जन्म मोरिय गणराज्य के पिप्पलिवन में मोरिय राजमहल में हुआ था ৷ इनके पिता मोरिय गणराज्य के लगभग ३६५-३४० ईसा०पू० में राज्यधिपति राजा थे ৷ जो मगध के विस्तारवादी सीमा सम्बधि युद्ध करते हुए,लगभग ३४० ईसा०पू० में मरे गए थे ৷ उस समय मगध राज्य पर नन्द वंश का शासन था ৷ नन्दों ने क्षत्रियों का विनाश करने के लिए क्षत्रियों को बंदी बनाकर उनकी हत्या कर रहे थे ৷
पिता की मृत्यु के समय राजकुमार चन्द्रगुप्त की आयु लगभग ५ वर्ष तथा उस समय उनके भ्राता विण्हूगुप्त की आयु मात्र १६ वर्ष की थी ৷ इस घटना के बाद महारानी धम्म मोरिया देवी आपने राजवंश को गुप्त रखने के लिए पुष्पपुर(पाटलिपुत्र) में शरण-ग्रहण कर अज्ञात वास का जीवन व्यतीत करने लगी ৷
राजकुमार विण्हुगुप्त ने सम्भवतः आपने राजपरिवार को गुप्त रखते हुए मगध राज्य से दूर श्रमण भेष धारण कर,सम्पूर्ण विधा में पारंगत होने के लिए तक्षशिला विश्वविधालय की ओर रुख किया ৷
अकुनवीसो वयसा पब्बजितो विप्पस्सिनो पाटगु ৷
अरियमग्गा कोविदं समचरिया समणा विण्हूगुप्तो”ति ৷৷
उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिन्द
तत्पश्चात विण्हूगुप्त १९ वर्ष की अवस्था में (लगभग ३४६ ईसा०पू०) प्रव्रजित होकर विप्पस्साना में पारंगत,आर्य मार्ग के ज्ञाता समता आचरण श्रमण-ब्राह्मण हुए ৷
लगभग ३३० ईसा०पू० में तक्षशिला विश्वविधालय से शिक्षा सम्पूर्ण कर पिता की हत्या,घनानन्द के क्रूर शासन,विदेशी आक्रमण के संकट से उत्तपन्न खतारे को दूर करने,अखंड भारत प्रबुद्ध भारत के निर्माण की परिकल्पना के साथ वह आपने गृह-राज्य पाटलिपुत्र पधारे ৷
क्या कोई आकलन भी कर सकता है कि जब समाज लगभग आपने आदिम अवस्था में था उस समय एक विशाल साम्राज्य आकर लेगा तथा अराजकता का विनाश हो जायेगा ৷ क्या चक्रवर्ती सम्राट की अवधारणा साकार हो पायेगी और वो भी ऐसे समय में जबकि पश्चिमोत्तर सीमा से विभिन्न आक्रमण हो रहे हो ৷ इन्ही युद्धो के माहौल से पाटलिपुत्र में कुछ ऐसा घटित होने जा रहा था,जो पुरे भारत की अगली कई शताब्दियों की नियति ही बदल कर रख दी ৷
यही वो समय था जब एक परम मेधा प्रज्ञा सम्पन्न आचार्य विण्हूगुप्त ने राजकुमार चन्द्रगुप्त मौर्य के रण कौशल से अखण्ड भारत की महागाथा रच डाली ৷
मोरियानं खत्तियानं वंसजातं सिरीधरं ৷
चन्दगुप्तोति”ति पञ्ञातं चणक्को ब्रह्मणाततो ৷৷
महावंस “टीका”
पालि साहित्य उत्तरविहारट्टकथा पर लिखित टीका महावंश ५वी सदी ईस्वी० में उल्लेखित है कि मौर्यवंश के क्षत्रियो में श्रीमान चन्द्रगुप्त राजा तथा प्रज्ञा सम्पन्न चाणक्य,(अवस्था सूचक ब्राह्मण हुए) ৷
भगवान के आर्य मार्ग पर चल कर न जाने कितने शाक्य,अशाक्य श्रमण-ब्राह्मण की अवस्था को प्राप्त हुए ৷ जाति से नहीं ब्राह्मण होता अपितु कर्म से ब्राह्मण होता है जिसने चार आर्य सत्य को भावित कर लिया ৷
धम्मपद-अट्टकथा “ब्राह्मणवग्गो”
मेसोपोटामिया की सभ्यता से आये विदेशी वैदिक समुदाय (जातिया) भारत की मूल सभ्यता संसकृति धम्म को नष्ट कर ब्राह्मण और आर्य शब्द के अवस्था सूचक को जाति सूचक बनाकर प्रकृति के नैसर्गिक कानून को बिगड़ कर वर्ण-व्यवस्था का घृणित तांडव आरम्भ कर मूल भारतीयों को अन्धमायताओ के कर्म-कांड के बल पर मानशिक गुलाम बना डाला ৷
पालि साहित्य के अनुसार मेधासम्पन्न चणक (कुशाग्र) बुद्धि होने के कारण विण्हुगुप्त को चाणक्य उपाधि से विभूषित किया गया ৷
इस प्रकार उन दिनों के महान विश्वविधालय तक्षशिला में सर्वविद्या सम्पन्न विण्हुगुप्त अर्थात महान आचार्य चाणक्य का जन्म होता है ৷
सीमांत प्रदेशो में हाहाकार मचा हुआ था ৷ घनान्द के अत्याचार से जनता इतनी दुःखी थी,उससे कही अधिक आतंक अलेक्सजेंड्रीया के सिकंदर ने फैला रखा था ৷ पुरु जसे महान राजवाओ के भी शासन हिल चुके थे तथा सिमवर्ती प्रदेशो पर यूनानी क्षत्रपो का आतंक आपनी बर्बरता के सीमाए तोड़ रही थी ৷
कुछ भारतीय इतिहासकारो ने सिकंदर और विण्हुगुप्त के मिलाने की चर्चा की है ৷ यदि यह तर्कसंगत है तो यह मिलन लगभग ३२६ ईसा०पू० के आस-पास तक्षशिला विश्वविधालय के अध्ययन-अध्यापन के समय ही सम्भव हुई होगी ৷
मघध में घनान्द अपने आमात्य (मंत्री) शाकटार के कहने पर समय-समय पर विद्वान् श्रमण-ब्राह्मण ,अरहत (भिक्षुओ) की सभा का आयोजन कर भोजन दान आदि की व्यवस्था करता था ৷ ऐसे ही किसी अवसर पर आचार्य चाणक्य (विण्हुगुप्त) घनान्द के राज दरवार में गुप्तचर की मंशा से पहुचे ৷ इसी बिच चाणक्य अपनी योग्य से स्थानीय लोगो के दिलो में घर कर चुके थे, जिससे विद्वान् सभा में उनको सबसे पहला व उच्च स्थान प्रदान किया गया, परन्तु वह आपने श्यामल वर्ण (सावले रंग) के कारण घनान्द की नजरो में खट्क रहे थे ৷ राजा नन्द ने अपने सेवको से आचार्य चाणक्य को भरी सभा में वृषल (नीच) कह कर निष्काषित कर दिया, तो आचार्य चाणक्य ने अनार्य (धम्म को न जानने वाला) घनान्द के वंश को समूल नष्ट कर एक विशाल चक्रवर्ती साम्राज्य की स्थापना करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा की ৷
नवामं घनान्द तं घापेत्वा चणडकोधसा ৷
सकल जम्बुद्विपसमि रज्जे समिभिसिच्ञ सो ৷৷
उत्तरविहारट्टकथायं-थेरमहिन्द-महावंस
महावंश टिका के अनुसार नवे घनान्द चणडक्रोधी राजा को मरवाकर विण्हुगुप्त (चाणक्य) ने आपने भाई चन्द्रगुप्त को सकल जम्बुद्वीप का सम्राट बनाया ৷
उन्होंने २४ वर्षो तक राज्य किया तथा उनके पुत्र बिन्दुसार ने २८ वर्ष राज्य कर विण्हुगुप्त मौर्य,मौर्यसाम्राज्य में प्रधानमंत्री पद पर विभूषित हुए ৷
मौर्यकाल में मेगास्थनीज राजदूत ने पाटलिपुत्र की यात्रा में अपना वर्णन मौर्यसम्राज्य की शासन व्यवस्था का किया है ৷ पाटलिपुत्र गंगा के किनारे बसा था ৷ इतिहास के दौर में उसके कई नाम रहे पुष्पपुर,पुष्पनगर,पाटलिपुत्र आदि अब पटना है ৷
मेगास्थनीज व स्ट्राबो के अनुसार “अग्रोनोमाई” (भुमापकाधिकारी) मौर्यकाल में सड़क निर्माण अधिकारी था ৷ इसने सकल जम्बुद्वीप में सड़क निर्माण कर जनता के लिए आवागमन का मार्ग सुलभ बनाया ৷ एतिहासिक श्रोतो से ज्ञात होता कि आचार्य विण्हूगुप्त (चाणक्य) की महान साम्राज्य निर्माण की परिकल्पना भगवान बुद्ध के राज्य निर्माण सुरक्षा “सुत्त सात-अपरिहाय” नियम से आते है ৷
दिघनिकाय-महापरिनिब्बनसुत्त
जब १८४ ईसा०पू० में अनार्य वैदिक विदेशी पुष्यमित्र-शुंग द्वारा मौर्यसाम्राज्य का धोखे से पतन कर दिया गया तब बहुत बाद के विदेशी वैदिक मनुवादी साजिश के तहत तथाकथित वैदिक-ब्राह्मणों ने दूसरी शताब्दी ईसा०पू० में पातंजलि ने “योगसूत्र” नामक ग्रन्थ की रचना भगवान बुद्ध के “सतिपट्ठानसुत्त” से चुरा कर की उसी काल में प्राचीन पालि भाषा का परिस्कार कर संस्कृत नामक भाषा का निर्माण किया गया ৷
(सतिपट्ठानसुत्त-पातंजलयोगसूत्र का तुलनातमक ग्रन्थ)-विप्पस्साना विशोधन विन्यास
८वी शाताब्दी ई० में रचित प्रबुद्ध भारती संस्कृति विरोधी ग्रन्ध “मुद्राराक्षस” नाटक विशाखदत्त द्वारा तथा उक्त ग्रन्थ पर रचित टिका ११वी शताब्दी ईस्वी० में “डूढीराज-टिका” है ৷
इन ग्रंथो की प्रमाणिकता व कथानक पुर्णतः काल्पनिक,कलुषित मानशिकता की विरोधी मंशा के है ৷ मूल प्राचीन ग्रन्थों को नष्ट कर ये बहुत बाद के दूषित ग्रन्थों की रचना मात्र है ৷
भाषा तथा पुरातात्विक शोधो से सिद्ध हो चूका है कि संस्कृत भाषा की रचना मौर्य-काल के बाद की है ৷ यह कहना पुर्णतः असत्य सिद्ध होगा की आचार्य चाणक्य द्वारा किसी ग्रन्थ की रचना संस्कृत में की गयी हो क्योकि जब पालि से संस्कृत भाषा का जन्म दूसरी शताब्दी ईसा०पू० पातंजलि के समय में हुआ,तब मौर्य-काल में संस्कृत भाषा का नमो निशान न था ৷ इतिहासकारों को इसका अध्ययान बखूबी कर लेना चाहिए ৷ तत्पश्चात इसके उल्ट फर्जी इतिहास के अध्ययन-अध्यापन पर शीघ्र रोक लगनी चाहिए ৷